केरल में जेंडर न्यूट्रल बस स्टॉप-अर्जेंटीना में ऐसे शब्द बैन: आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाओं में जेंडर का नहीं रहता दबाव

15 मिनट पहलेलेखक: संजय सिन्हा

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एक तरह जहां पूरी दुनिया में जेंडर न्यूट्रल यानी ऐसे शब्दों की वकालत हो रही है जिनसे जेंडर का पता नहीं चलता। वहीं अर्जेंटीना दुनिया का पहला देश बन गया है जिसने ऐसे शब्दों या भाषाओं को बैन कर दिया है। राजधानी ब्यूनस आयर्स के स्कूलों में टीचर्स वैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर रहे जिनसे जेंडर का पता नहीं चलता।

अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में जेंडर न्यूट्रल लैंग्वेज को बैन करने का विरोध करते स्कूल के स्टूडेंट। लैटिन अमेरिका के कई देशों में भी इसका विरोध हो रहा है।

अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में जेंडर न्यूट्रल लैंग्वेज को बैन करने का विरोध करते स्कूल के स्टूडेंट। लैटिन अमेरिका के कई देशों में भी इसका विरोध हो रहा है।

सोशल मीडिया में केरल का वीडियो वायरल

सरकारी आदेश के अनुसार, क्लास में जेंडर न्यूट्रल शब्दों को बोलने पर प्रतिबंध लगाया गया है। स्पैनिश भाषाविद, राजनीतिज्ञ और अन्य लोगों का कहना है कि जेंडर न्यूट्रल शब्दों से उनकी भाषा का नुकसान हो रहा है। स्त्रीलिंग या पुल्लिंग बताने के लिए कई शब्द हैं जब इनका प्रयोग न होकर जेंडर न्यूट्रल शब्द बोले जाएंगे तो कई शब्द चलन से बाहर हो जाएंगे। जबकि दूसरी ओर, भारत में जेंडर न्यूट्रल लैंग्वेज की वकालत हो रही है। ताजा मामला केरल के तिरुअनंतपुरम का है जहां कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग तिरुअनंतपुरम के छात्रों ने बस स्टॉप पर जेंडर आधारित सीटिंग अरेंजमेंट का विरोध किया। सोशल मीडिया में मुद्दा छाने के बाद मेयर ने कहा कि यहां जेंडर न्यूट्रल बस स्टॉप का निर्माण किया जाएगा।

भारत में जेंडर न्यूट्रल लैंग्वेज को समाज के स्तर पर स्वीकार्य किया जा रहा है। यही कारण है कि पहले जहां पुरुषों के सैलून और महिलाओं के ब्यूटी पार्लर होते थे, अब यूनिसेक्स सैलून का चलन देखने को मिल रहा है।

भारत में जेंडर न्यूट्रल लैंग्वेज को समाज के स्तर पर स्वीकार्य किया जा रहा है। यही कारण है कि पहले जहां पुरुषों के सैलून और महिलाओं के ब्यूटी पार्लर होते थे, अब यूनिसेक्स सैलून का चलन देखने को मिल रहा है।

क्या है जेंडर न्यूट्रल लैंग्वेज

सरल शब्दों में कहें तो जेंडर न्यूट्रल शब्द या भाषा वह है जिससे जेंडर या लिंग की पहचान नहीं होती। हैदराबाद यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर वुमन स्टडीज की प्रोफेसर के सुनीता रानी बताती हैं कि जेंडर न्यूट्रल लैंग्वेज एक आदर्श स्थिति है। लेकिन यह भी अपने मूल स्वरूप में नहीं रहता।

भारत में अलग-अलग क्षेत्र, भाषाओं की वि‌विधता के कारण जेंडर का स्वरूप भिन्न है। हिंदी के मुकाबले क्षेत्रीय भाषाओं में जेंडर न्यूट्रल लैंग्वेज अधिक है।

भारत में अलग-अलग क्षेत्र, भाषाओं की वि‌विधता के कारण जेंडर का स्वरूप भिन्न है। हिंदी के मुकाबले क्षेत्रीय भाषाओं में जेंडर न्यूट्रल लैंग्वेज अधिक है।

आदर्श रहते हुए भी भाषा के इस्तेमाल में जेंडर पर जोर

उदाहरण के लिए, पुलिस एक जेंडर न्यूट्रल शब्द है। जब कोई घटना होती है तो हम कहते हैं कि पुलिस मौके पर पहुंच गई है। इससे यह बोध नहीं होता कि महिला पुलिस है या पुरुष। इसी तरह प्रेसिडेंट चेयरपर्सन, एक्टर, फ्लाइट अटेंडेंट जैसे शब्द हैं, जो जेंडर न्यूट्रल में आते हैं। लेकिन जेंडर न्यूट्रल शब्दों के साथ भी छेड़छाड़ की जाती है। जैसे प्रेसिडेंट जेंडर न्यूट्रल शब्द है लेकिन लोग मैडम प्रेसिडेंट भी कह देते हैं। जब पुरुष प्रेसिडेंट बनते हैं तो हम संबोधन में सर प्रेसिडेंट नहीं कहते हैं। इसी तरह पुलिस कहना पर्याप्त होता है। लेकिन लोग महिला पुलिस बोलते हैं, जबकि पुरुष पुलिस नहीं कहा जाता है।

समावेशी का बोध हो तो ठीक नहीं तो इस्तेमाल से बचें

सुनीता रानी कहती हैं पर्सन महत्वपूर्ण है न कि जेंडर। जब जेंडर न्यूट्रल लैंग्वेज की बात करते हैं तो यह पूरी तरह इनक्लूसिव होना चाहिए। न कि जेंडर ऑफेंसिव। जेंडर निर्धारण में कई फैक्टर काम करते हैं जैसे-सांस्कृतिक, क्षेत्रीय, राजनीतिक आदि।

इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल ने पिछले साल कमेंट्री, स्टेटमेंट और संगठन से जुड़े सभी चैनल में बैट्समैन शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगाया था। बैट्समैन की जगह बैटर शब्द को जेंडर न्यूट्रल माना गया। तब यह खासा चर्चित रहा था।

इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल ने पिछले साल कमेंट्री, स्टेटमेंट और संगठन से जुड़े सभी चैनल में बैट्समैन शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगाया था। बैट्समैन की जगह बैटर शब्द को जेंडर न्यूट्रल माना गया। तब यह खासा चर्चित रहा था।

आदिवासी भाषाओं में लिंग निर्धारण का दबाव नहीं

शांतिनिकेतन स्थित विश्वभारती के भाषा भवन, हेड डिपार्टमेंट ऑफ संथाली और असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. धनेश्वर मांझी बताते हैं कि हिंदी में लिंग निर्धारण को लेकर भ्रम की स्थिति है। लेकिन आदिवासी भाषाओं में देखें तो वहां यह नहीं है। जैसे संथाली भाषा में राम इज गोइंग को ‘राम चला कानय’ कहेंगे। ठीक इसी तरह सीता इज गोइंग के लिए ‘सीता चला कानय’ कहेंगे।

प्रसिद्ध भाषाविद डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह बताते हैं आदिवासी भाषाओं में लिंग निर्णय का इतना बोझ नहीं है। यही नहीं, दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में भी हिंदी के मुकाबले लिंग निर्धारण में इतना अंतर नहीं है। जैसे मगधी, भोजपुरी, मैथिली, अवधी आदि।

भाषा अपना रूप-स्वरूप खुद बदलती है। समाज के स्तर पर यह काम होता है।

भाषा अपना रूप-स्वरूप खुद बदलती है। समाज के स्तर पर यह काम होता है।

पुरुषों से जुड़े काम का जेंडर पर प्रभाव

तस्मानिया यूनिवर्सिटी में जेंडर स्टडीज के सीनियर लेक्चरर लूसी टैटमैन का कहना है कि फायरमैन, चेयरमैन, वाशरमैन, द कॉमन मैन जैसे शब्दों को गौर से देखें तो पाएंगे कि इन प्रोफेशन में दशकों पहले केवल पुरुष ही जाते थे। महिलाओं को फायर फाइटर बनने की इजाजत नहीं थी या फिर किसी कंपनी बोर्ड में महिलाएं नहीं होती थीं। जिन कामों में महिलाएं नहीं जा सकती थीं, उन्हें पुरुषों से जोड़ दिया गया। चूंकि अब महिलाएं जागरूक हो रही हैं और जिन्हें पुरुषों का काम कहा जाता था, वहां जा रही हैं इसलिए अब चेयरपर्सन या फायरफाइटर शब्द अधिक चलन में हैं।

पितृ सत्तात्मक सोच की वजह से दिखते हैं जेंडर आधारित शब्द

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ लिंगग्विस्टिक के एसोसिएट प्रोफेसर और कॉमनवेल्थ एकेडेमिक फेलो डॉ. अभिनव कुमार मिश्रा बताते हैं कि हिंदी में लिंग निर्धारण दो तरह से होता है लेक्सिकल यानी शाब्दिक जेंडर जैसे लड़का-लड़की और दूसरा ग्रामैटिकल जेंडर। अंग्रेजी में केवल लेक्सिकल जेंडर होता है जबकि हिंदी में दोनों होता है। जब भी कोई नया शब्द आता है तो सामान्य रूप से इसे हम पुल्लिंग बना देते हैं। यह पितृसत्तात्मक सोच का प्रभाव है। भारतीय भाषाओं में यह बखूबी दिखता है। जैसे अंग्रेजी में ‘राम गोज’ या ‘सीता गोज’ लिंग निर्धारण का फर्क नहीं पड़ता। लेकिन भारतीय भाषाओं में ग्रामैटिकल फॉर्मीन है। इसलिए राम जाता है या सीता जाती है कहते हैं। यह भारतीय भाषाओं की विशेषता भी है।

भाषा की होती है मौलिक प्रकृति, बनती-बिगड़ती है शब्दावली

जेएनयू में डिपार्टमेंट ऑफ हिंदी में असिस्टेंट प्रोफेसर गंगा सहाय बताते हैं कि भाषा की अपनी मौलिक प्रकृति होती है। बहुत सारी भाषाओं में जेंडर का संदर्भ होता है बहुत में नहीं। भाषा का सामाजिक वैज्ञानिक आधार होता है। इसी के आधार पर निर्धारित होता है कि उसका व्याकरण कैसे काम करेगा। उसकी शब्दावली निर्मित होने के भी ऐतिहासिक-सामाजिक संदर्भ हैं।

सामाजिक असमानता दूर करने का प्रतीक है जेंडर न्यूट्रल लैंग्वेज

गंगा सहाय बताते हैं कि अब दुनिया ऐसी दिशा में बढ़ रही है जहां भाषाओं में सामाजिक असमानता को दिखाने वाले शब्दों को कम किया जा रहा है। दरअसल, भाषा नदी की तरह होती है। भाषा में जबरन बदलाव के प्रयास नहीं होने चाहिए। अगर यह होता भी है तो यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि वर्ग, जाति, नस्ल, जेंडर जैसे विषयों पर लोग आहत न हों। समाज के स्तर पर यह बदलाव होना चाहिए लेकिन भाषाओं की मूल प्रकृति में छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। आदिवासी भाषाओं में बहुत सारी चीजों में जेंडर नहीं होता। जैसे उनके देवता को सिंगबोंगा कहते हैं। उनका कोई जेंडर नहीं है। स्त्री या पुरुष किसी भी रूप में याद कर सकते हैं। अर्जेंटीना में जेंडर न्यूट्रल शब्दों के बैन के अपने सामाजिक संदर्भ होंगे, इसे वहां के समाज के स्तर पर ही समझा जा सकता है।

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