मैं 1947 का हिन्दुस्तान बोल रहा हूं: अंग्रेज हार मान चुके थे, सब जश्न में थे, पर जिन्ना मेरे टुकड़े करने को आमादा थे

3 मिनट पहले

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27 जनवरी 1947 को बसंत पंचमी मना चुकी इठलाती प्रकृति के संग भारत अपनी आजादी की राह तकता अपने ही लोगों के झगड़ों से मायूस हो रहा था। दिल्ली से लंदन तक लगातार बैठकें चल रही थीं। उस वक्त कैसी उथल-पुथल मची थी। इसे 1947 के हिन्दुस्तान की जुबानी बता रहे हैं- डॉ. धनंजय चोपड़ा। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर ऑफ मीडिया स्टडीज में पाठ्यक्रम समन्वयक हैं।

मुझे याद है वो खूबसूरत लम्हा… तारीख थी – 20 फरवरी 1947
लंदन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने हाउस ऑफ कामन्स में घोषणा कर दी कि अंग्रेज जून 1948 से पहले हिन्दुस्तान छोड़ देंगे और सत्ता जिम्मेदार हाथों में सौंप दी जाएगी। ये सुनते ही मेरा जिस्म आजादी की खुशबू से महक उठा। 19 फरवरी 1947 की सुबह नाश्ता कर रहे वायसराय वावेल को जैसे ही लंदन से गोपनीय तार मिला तो पहले वे थोड़े गंभीर हुए, फिर मुस्कुराकर बोले- आखिर उन्होंने मुझे भगा दिया। क्योंकि नए वायसराय लुई फ्रांसिस एल्बर्ट विक्टर निकोलस माउंटबेटेन को आजादी देने का जिम्मा सौंपा गया था।

उधर, मेरे करोड़ों बाशिंदों के चेहरों पर आजादी की मुस्कान बिखरी ही थी कि आंखों से खून के कतरे बह निकले। वजह थी- मोहम्मद अली जिन्ना। जी हां! यही वो शख्स था, जो बंटवारे के खंजर से मेरे जिस्म के दो टुकड़े करने पर आमादा था। जिन्ना ने साफ-साफ कह दिया था कि उनकी पार्टी हिन्दुस्तान का बंटवारा चाहती है, नहीं तो यह देश ध्वस्त हो जाएगा।

वहीं, लंदन में लेबर पार्टी के नुमाइंदे यह गणित बिठाने में लगे थे कि बंटवारे के जरिए किस तरह हिन्दुस्तान में नफरत का बीज बोएं कि देश में तबाही भी मच जाए और उनके दामन पर दाग भी न लगे। 10 डाउनिंग स्ट्रीट और बकिंघम पैलेस की नींद इसलिए हराम थी, क्योंकि हिन्दुस्तानी और अंग्रेज सैनिकों के बीच दरार बहुत चौड़ी हो चुकी थी। रॉयल एयरफोर्स के अंग्रेज अफसरों ने तो विद्रोह ही कर दिया था।

दरअसल, 18 फरवरी 1946 को करीब 2,000 भारतीय नौसैनिकों ने बगावत कर दी थी और गोलीबारी में करीब 400 भारतीय सैनिक शहीद हो गए थे। तभी से अंदर ही अंदर गुस्सा पनप रहा था। 1946 में ही अंग्रेजों ने तय कर लिया था कि अब हम हिंदुस्तान को आजाद कर देंगे। इसी को ध्यान में रखकर 2 सितंबर 1946 को अंतरिम सरकार गठित हुई, जिसके मुखिया जवाहरलाल नेहरू थे। इस अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग शामिल तो हुई थी, लेकिन 1947 आते-आते अपने कारनामों से उसने जबरदस्त अंतर्विरोध पैदा कर दिया।

नतीजा यह कि फरवरी 1947 में नेहरू का धैर्य टूटा और उन्होंने मांग कर दी कि लीग के मंत्री त्यागपत्र दे दें। सरदार पटेल ने भी कड़ी चेतावनी दी कि मुस्लिम लीग के सदस्य फौरन कैबिनेट नहीं छोड़ेंगे तो कांग्रेस के सदस्य त्यागपत्र दे देंगे। हालांकि, नए वायसराय का नाम और आजादी की तारीख तय होने की घोषणा ने इस गहमागहमी को कुछ दिन शांत कर दिया था।

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