भास्कर ओपिनियन-चुनाव और प्याज: चुनावी शामियानों को अब प्याज़ की मालाओं से सजाने की जरूरत

4 मिनट पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर

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चुनाव सिर पर हैं। ख़ासकर, तीन राज्यों में लड़ाई अहम पायदान पर पहुँच गई है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की पार्टी और उनका बेटा इन दिनों ईडी को झेलने पर विवश हैं। छत्तीसगढ़ में राहुल गांधी खेत में उतरकर धान काट रहे हैं और मध्यप्रदेश में कमलनाथ सुपरमैन बने उड़ रहे हैं।

दरअसल, असल सुपरमैन प्याज़ है। वो प्याज जो वर्षों पहले सरकारें बदल चुका, वही, अब ऐन चुनाव के वक्त फिर से सत्तर- अस्सी रुपए किलो तक पहुँच गया है। घरों, मोहल्लों और चुनावी मैदान में भी आजकल प्रत्याशियों, पार्टियों से ज़्यादा प्याज़ की चर्चा चल रही है। हालाँकि अब माहौल बदल चुका है। महंगाई से लोगों को अब बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता।

प्याज़ की बढ़ती क़ीमतों से राजनीतिक पार्टियाँ घबरा नहीं रहीं। वे जानती हैं कि महंगाई अब मुद्दा नहीं रही।

प्याज़ की बढ़ती क़ीमतों से राजनीतिक पार्टियाँ घबरा नहीं रहीं। वे जानती हैं कि महंगाई अब मुद्दा नहीं रही।

ऑनलाइन पेमेंट किया और लोग आगे बढ़ जाते हैं। आजकल भाव कौन पूछता है? किसी को फ़र्क़ ही नहीं पड़ता, क्योंकि पैसे जेब से निकालकर गिनकर अब कोई नहीं देता। इसी वजह से पैसे की अहमियत पता नहीं लगती।

इसलिए प्याज़ की बढ़ती क़ीमतों से राजनीतिक पार्टियाँ घबरा नहीं रहीं। वे जानती हैं कि महंगाई अब मुद्दा नहीं रही। कांग्रेस और अन्य छोटी पार्टियाँ भले ही महंगाई को अब भी बड़ा मुद्दा बताती रहती हैं, लेकिन वे खुद भी जानती हैं कि इसका अब वैसा असर नहीं रहा जैसा दस-पंद्रह साल पहले हुआ करता था।

जहां तक राजस्थान में चुनावी माहौल की बात है वहाँ अभी खामोशी का राज ज़्यादा मालूम पड़ता है। गाँवों, ढाणियों में अभी वैसा माहौल नहीं दिख रहा जैसा पिछले चुनावों में रहता था। इसका मतलब साफ़ है कि इस बार कोई चुनावी लहर या आँधी नहीं है। यही वजह है कि मुक़ाबला काँटे का होने की संभावना दिखाई दे रही है।

काँटे के मुक़ाबले का अर्थ है इसमें सभी प्रमुख पार्टियाँ हर तरह के औज़ारों का इस्तेमाल करेंगी। प्रेक्षक कहते हैं इस बार का चुनाव अब तक का सबसे तल्ख़ और महँगा चुनाव होगा। तल्ख़ी आएगी तो कटुता भी आएगी ही। जो कि दिखाई भी दे रही है।

इंडिया नाम से ग़ैर भाजपा दलों ने कुछ समय पहले एक गठबंधन खड़ा किया था।

इंडिया नाम से ग़ैर भाजपा दलों ने कुछ समय पहले एक गठबंधन खड़ा किया था।

सभी पाँचों राज्यों की बात करें तो यहाँ इंडिया वाले नज़र नहीं आ रहे हैं। इंडिया नाम से ग़ैर भाजपा दलों ने कुछ समय पहले एक गठबंधन खड़ा किया था। इन विधानसभा चुनावों में उसका कोई असर दिखाई नहीं दे रहा है।

क्योंकि जो राजनीतिक दल इस गठबंधन में शामिल थे, उनके बीच भी कोई तालमेल नहीं हो सका है। देखना यह है कि लोकसभा चुनाव में क्या होता है। राज्यों के चुनाव में तो पहले से ही पता था कि इनका गठबंधन मुश्किल है क्योंकि क्षेत्रीय ताकतें जो गठबंधन में शामिल हैं वे राज्यों में एक- दूसरे के खिलाफ लड़ती रही हैं। ऐसे में वे अपना बेस नहीं खोना चाहतीं।