भास्कर ओपिनियन- चंदे से छापों तक: एक तरफ़ छापों की धमक, दूसरी तरफ़ राजनीतिक चंदे पर बहस

एक घंटा पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर

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केंद्रीय एजेंसियाँ धडाधड छापे मार रही हैं। राजस्थान में, तमिलनाडु में और दिल्ली में भी। दिल्ली में तो चर्चा यहाँ तक चल रही है कि यही हाल रहा तो किसी दिन अरविंद केजरीवाल को जेल में ही केबिनेट मीटिंग न करनी पड़ जाए! विपक्ष का सवाल यह है कि ईडी और आईटी के छापे विपक्षी नेताओं पर ही क्यों पड़ रहे हैं? क्या सत्ता पक्ष के नेता सबके सब पाक- साफ़ हैं?

विपक्ष यह भी कह रहा है कि चुनाव के वक्त चुनावी राज्यों में विपक्ष को गिराने के लिए, उसके नेताओं को प्रक्रियाओं में उलझाए रखने के लिए ऐसा किया जा रहा है। जिन नॉन इलेक्शन स्टेट में छापे मारे जा रहे हैं वहाँ सत्ता पक्ष का उद्देश्य यह है कि वहाँ के नेता प्रचार करने के लिए चुनावी राज्यों में न जा पाएँ।

ED ने गुरुवार को छत्तीसगढ़ के रायपुर में असीम दास नाम के व्यक्ति के पास से 5.39 करोड़ रुपए बरामद किए। इन्हें गिनने के लिए SBI से मशीन मंगवाई गई।

ED ने गुरुवार को छत्तीसगढ़ के रायपुर में असीम दास नाम के व्यक्ति के पास से 5.39 करोड़ रुपए बरामद किए। इन्हें गिनने के लिए SBI से मशीन मंगवाई गई।

जहां तक सत्ता पक्ष का सवाल है उसका कहना है कि अगर विपक्षी नेता इतने ही पाक- साफ़ हैं तो डर क्यों रहे हैं। हालाँकि सत्ता पक्ष की इस बात में कोई सकारात्मक तर्क नज़र नहीं आता। लेकिन सत्ता पक्ष का मुँह आख़िर कौन बंद करा सकता है?

दरअसल, राजनीति में प्राय: कोई भी पाक- साफ़ नहीं है। तभी विपक्षी नेता खुलकर ईडी और आईटी के छापों का जवाब नहीं दे पा रहे हैं क्योंकि जो कोई बयान देगा, उसे भी छापों का डर सताने लगेगा। यही वजह है कि सब के सब अपना मुँह सिलकर बैठे हैं।

दूसरी तरफ़ चुनावी बॉन्ड से चंदा लेने पर बहस छिड़ी हुई है। सत्ता पक्ष और विपक्ष किसी के पास कोई जवाब नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तक ने कह दिया कि राजनीतिक दलों की चंदा लेने की यह प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। इसका कोई उचित और पारदर्शी उपाय सोचना चाहिए और उसे लागू करना चाहिए। कोर्ट ने यहाँ तक कहा कि कार्पोरेट घराने सत्ता पक्ष को ही ज़्यादा चंदा देते हैं।

फिर सरकार से तरह- तरह के फ़ायदे लेते हैं। वैसे भी इसकी गोपनीयता दूसरे राजनीतिक दलों और आम जनता के लिए ही है। जिस पार्टी को चंदा मिलता है, उसे तो पता रहता ही है कि किसने कितना दिया! जहां तक सरकार का सवाल है, उसे तो एक – एक पैसे के लेनदेन का पता रहता है। ऐसे में इस छितरी हुई या एकाकी गोपनीयता का क्या मतलब है? जवाब किसी के पास नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट की दलीलें सुनकर सारे पक्ष घर आ गए। चंदा मिलना जारी है। चुनाव उसी चंदे से लड़े जा रहे हैं।

न किसी को हिसाब देना है और न ही कोई हिसाब रखना है। बहरहाल, छापे चल रहे हैं और चंदे पर बहस भी। दोनों का ही कोई इलाज नहीं है। चुनाव आयोग इन दोनों ही विषयों को छूना तक नहीं चाहता।