अविश्वास प्रस्ताव: पक्ष-विपक्ष में एक- दूसरे को सुनने का साहस नहीं रहा, रचनात्मकता तो गुम ही हो गई

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  • There Is No Courage To Listen To Each Other In The Opposition, The Creativity Has Disappeared.

23 मिनट पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर

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देश के संसदीय इतिहास में पहला अविश्वास प्रस्ताव 22 अगस्त 1963 को लाया गया था। प्रस्ताव लाने वाले थे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के आचार्य जेबी कृपलानी। आचार्य कृपलानी ने तब कहा था- मैं बड़े दुखी मन से उस सरकार के खिलाफ ये प्रस्ताव ला रहा हूँ जिसमें मेरे तीस साल के साथी और अभिन्न मित्र शामिल हैं। लेकिन मैं अपने कर्तव्यों से बंधा हुआ हूँ और सरकार की ग़लतियों को ऐसे ही छोड़ नहीं सकता। तब के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था- ऐसे प्रस्ताव लोकसभा में आते रहने चाहिए, ताकि सांसद सरकार के खिलाफ खुलकर बोल सकें और उसे आईना दिखा सकें, अपने क्षेत्र की समस्या रख सकें। ख़ासकर तब, जब यह पता हो कि बहुमत की सरकार इसमें हारने वाली नहीं है।

अविश्वास प्रस्ताव पर जवाब देते हुए पीएम मोदी लोकसभा में 2.12 घंटे बोले। उन्होंने 1 घंटा 32 मिनट बाद मणिपुर का जिक्र किया।

अविश्वास प्रस्ताव पर जवाब देते हुए पीएम मोदी लोकसभा में 2.12 घंटे बोले। उन्होंने 1 घंटा 32 मिनट बाद मणिपुर का जिक्र किया।

लेकिन गुरुवार को क्या हुआ? अविश्वास प्रस्ताव गिर गया। विपक्ष मणिपुर पर सार्थक चर्चा के उद्देश्य से लोकसभा में यह प्रस्ताव लाया था। लेकिन सार्थकता कहीं नज़र नहीं आई। विपक्ष के सारे नेता बोल लिए लेकिन प्रधानमंत्री जब इसका जवाब देने लगे तो विपक्ष वाकआउट कर गया। हो सकता है यह विपक्ष की रणनीति हो, लेकिन इसमें सार्थक चर्चा का भाव कहाँ है? रचनात्मकता कहाँ है? तीन दिन तक दोनों ही पक्षों ने एक- दूसरे के खिलाफ भड़ास निकाली और चलते बने! मणिपुर पर अगर चर्चा हो रही है तो एक- दूसरे पर आरोप लगाने के बजाय विपक्ष कुछ सुझाव देता, कुछ समाधान सुझाता और सत्ता पक्ष भी अपनी तरफ़ से कोई निदान बताता या विपक्ष को गंभीरता से सुनता! हो सकता है दोनों ओर से रचनात्मकता दिखती, तो मणिपुर जैसी समस्या के हल का भी कोई रास्ता निकलता।

संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान राहुल के भाषण का जवाब केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने दिया।

संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान राहुल के भाषण का जवाब केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने दिया।

लेकिन आजकल राजनीति में रचनात्मकता है ही कहाँ? राजनेताओें में धैर्य कहाँ है? बोलते हैं तो लगता है नाराज़ हो रहे हैं! भाषण देते हैं तो लगता है बदला ले रहे हैं! अगर आप किसी गंभीर समस्या पर कोई समाधान निकालने की दिशा में आगे बढ़ना ही नहीं चाहते हैं, तो आख़िर इस तरह की चर्चाओं का मतलब ही क्या है? क्यों संसद की कार्यवाही पर लाखों रुपए खर्च किए जा रहे हैं? क्यों देश और देश की जनता का क़ीमती समय बर्बाद किया जा रहा है?

यह तो किसी किताब में कहीं लिखा नहीं है कि हर समस्या को सरकार ही सुलझाएगी और विपक्ष का काम केवल सरकार पर आरोप लगाना ही है। ठीक है, सरकार अगर ग़लत दिशा में जा रही हो तो विपक्ष का काम है कि वह उसे सही रास्ते पर लाए। हर गलती पर उसे रोके-टोके, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं ही है कि विपक्ष की कोई सकारात्मक भूमिका है ही नहीं! है। ज़रूर है। जितनी ज़िम्मेदारी सरकार की होती है, उतनी ही विपक्ष की भी होती है, लेकिन अब हालात ऐसे हैं कि सत्ता पक्ष और विपक्ष एक- दूसरे को सुनना ही नहीं चाहते! एक- दूसरे को नीचा दिखाने के सिवाय लगता है इनका कोई दूसरा उद्देश्य ही नहीं रह गया है।

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