मैं इस दुनिया में क्यों हूं…मासूम का वीडियो वायरल: होमवर्क का लोड लेने वाले बच्चे इमोशनली कमजोर, खुद को नुकसान पहुंचाती हैं लड़कियां

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नई दिल्लीएक घंटा पहलेलेखक: संजय सिन्हा

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मैं इस दुनिया में क्यों हूं, मुझे तो इस दुनिया से निकल जाना चाहिए…एक मासूम का यह कहना चिंता में डालने वाली बात है। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो में बच्चे की झुंझलाहट दिखती है। पांच से छह साल के मासूम भी पढ़ाई का दबाव झेल रहे। समय पर होमवर्क करना और एक्स्ट्रा करिकुलम एक्टिविटीज में बेहतर प्रदर्शन का स्ट्रेस भी महसूस कर रहे। उम्र बढ़ने के साथ ये तनाव डिप्रेशन का रूप ले लेता है। यही कारण है कि भारत में किशोर-किशोरियों में भी सुसाइड करने का ट्रेंड बढ़ा है।

लड़कियों में डिप्रेशन रेट अधिक

नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार, 2020 में 11,396 बच्चों ने सुसाइड किया। यानी हर दिन 31 बच्चों ने अपनी जान दी। इसमें भी लड़कियों की संख्या अधिक रही। जहां 5,392 लड़कों ने सुसाइड किया, वहीं 6,004 लड़कियों ने सुसाइड किया। एनसीआरबी का डाटा बताता है कि बच्चे साइकोलॉजिकल ट्रामा के दौर से गुजर रहे हैं।

बच्चों पर अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव

सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ साइकेट्री के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. वरुण एस मेहता बताते हैं कि बच्चे स्कूल को सेकेंड होम मानते हैं। इसलिए क्लास वर्क हो या होमवर्क, वे इसे बहुत गंभीरता से लेते हैं। पेरेंटस को ये मामूली बातें लग सकती हैं लेकिन बच्चे इसे लेकर संवेदनशील होते हैं। उन पर स्कूल में भी अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव बढ़ता जा रहा है।

पेरेंटस बच्चों से परीक्षा में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद करते हैं। मार्क्स के आधार पर उनका मूल्यांकन करते हैं। इससे बच्चे दबाव में आ जाते हैं।

पेरेंटस बच्चों से परीक्षा में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद करते हैं। मार्क्स के आधार पर उनका मूल्यांकन करते हैं। इससे बच्चे दबाव में आ जाते हैं।

मां-बाप की चाहत- हर जगह टॉप करे बच्चा

बच्चों पर केवल पढ़ाई का ही दबाव नहीं होता, बल्कि एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज में बेस्ट करने का स्ट्रेस होता है। हालांकि सभी पेरेंटस के पास इतने संसाधन नहीं होते, लेकिन जो सक्षम हैं वे चाहते हैं कि बच्चा इनमें पार्टिसिपेट करे और टॉप करे। पेरेंट्स चाहते हैं कि बच्चा पेंटिंग, डांसिंग, स्पोर्ट्स हर चीज में आगे रहे। बार-बार बच्चों को यह बताते-जताते रहते हैं कि देखो, उनका बच्चा इस चैनल पर सिंगिंग या डांसिंग में आ रहा है। उसने 95 प्रतिशत मार्क्स भी लाए आदि। ऐसे में बच्चे के ऊपर प्रेशर आता है।

आपके कहे बिना भी टेंशन में आ जाते हैं बच्चे

डॉ. वरुण बताते हैं कि नए जमाने की पेरेंटिंग ने एक अजीब किस्म का संकट खड़ा किया है। जब पेरेंटस चाहते हैं कि मेरा बच्चा ऐसा बने या बेस्ट आए तब बच्चे पर प्रेशर अधिक होता है। कुछ पेरेंट्स ऐसे होते हैं जो कहते हैं कि तुम जैसे भी पढ़ो, फर्क नहीं पड़ता। तनाव न लो। लेकिन ऐसे बच्चे भी रियलाइज कर लेते हैं कि पेरेंट्स उनके प्रति क्या सोचते हैं या फिर पेरेंट्स मेरी पढ़ाई को लेकर तनाव में हैं।

स्कूल स्ट्रेस इन इंडिया: इफेक्टस ऑन टाइम एंड डेली इमोशंस शीर्षक एक प्रकाशित शोध में बताया गया है कि कैसे बच्चे स्कूल वर्क और होमवर्क को लेकर तनाव में हैं।

स्कूल स्ट्रेस इन इंडिया: इफेक्टस ऑन टाइम एंड डेली इमोशंस शीर्षक एक प्रकाशित शोध में बताया गया है कि कैसे बच्चे स्कूल वर्क और होमवर्क को लेकर तनाव में हैं।

होमवर्क का लोड लेने से कमजोर हो जाते हैं बच्चे

इंटरनेशनल जर्नल ऑफ बिहेवियरल डेवलपमेंट की एक स्टडी के अनुसार, बच्चों के स्कूल वर्क के कई साइड इफेक्ट्स होते हैं। जो बच्चे होमवर्क पर अधिक समय देते हैं वे इमोशनल रूप से कमजोर होते हैं। उनमें एक तरह की एंग्जाइटी होती है। लेकिन पेरेंट्स इसे नहीं समझ पाते।

लड़कियों में सेल्फ इंजरी के केस अधिक

सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ रांची के डिपार्टमेंट ऑफ साइकेट्रिक सोशल वर्क के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. के प्रसाद बताते हैं कि बच्चों में आमतौर पर इमोशंस सबसे लेट डेवलप होता है। उन्हें नहीं पता होता कि कैसे बिहेव करना है। लेकिन टीवी, मोबाइल या सोशल मीडिया को देखकर वे आजकल तुरंत रियक्ट करने लगे हैं। हमारी सोसाइटी में लड़के अपनी बात तो किसी तरह बता पाते हैं या शेयर कर पाते हैं लेकिन लड़कियां अलग-थलग पड़ जाती हैं। अपनी फीलिंग्स छिपा लेती हैं। इसलिए लड़कियों में सेल्फ इंजरी के केस ज्यादा आते हैं। लड़कियां जब 11 से 13 साल की उम्र में होती हैं तब छोटी-छोटी बातों पर भी खुद को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैं। यहां भी पेरेंटिंग का इश्यू अधिक दिखता है।

चिंटू कम मार्क्स लाएगा तो आसमान नहीं फट जाएगा

  • बच्चे के समाजीकरण पर ध्यान दें, बच्चे क्या सीख रहे, इस पर ध्यान दें
  • जीवन महत्वपूर्ण है स्कूल-कॉलेज में परफॉर्मेंस नहीं, बच्चों को सिखाएं
  • पेरेंटस अपने बच्चों को यांत्रिक तरीके से देखने का नजरिया बदलें
  • बच्चों को डिजिट के रूप में देखना बंद करें, मार्क्स से मूल्यांकन न करें
  • पेरेंटस व्यवहारिक तरीका अपनाएं, बच्चों का दोस्त बन संवारें भविष्य
  • कहीं टीचर बच्चे पर अच्छा प्रदर्शन का तो नहीं बना रहे दबाव, रखें ध्यान
सोशल मीडिया भी बच्चों में तनाव का टूल बनता जा रहा। दुनिया भर की सूचनाएं तेजी से फैलती हैं। इनमें निगेटिव मैसेज अधिक होते हैं।

सोशल मीडिया भी बच्चों में तनाव का टूल बनता जा रहा। दुनिया भर की सूचनाएं तेजी से फैलती हैं। इनमें निगेटिव मैसेज अधिक होते हैं।

स्कोर कार्ड के आधार पर बच्चे का मूल्यांकन खतरनाक

उत्तर प्रदेश के कुशीनगर के उदित नारायण पीजी कॉलेज पडरौना में समाजशास्त्र विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर विश्वंभर नाथ प्रजापति कहते हैं अपने देश में पेरेंटिंग हिंसक रहा है। फिजिकल से अधिक मेंटल वॉयलेंस है पेरेंटिंग में। शुरू से बच्चों को समझने की कोशिश नहीं की गई है। बच्चों का समाजीकरण हो रहा है या नहीं, इस ओर ध्यान ही नहीं है। पेरेंट बच्चों को एप्रिसिएट न करके उसके स्कोर को बड़ा मान रहे। एक तरह से पेरेंट व्यवहारिक चीजों से कट गए हैं। स्कोर पाने को अधिक महत्वपूर्ण मान रहे। जीवन को मैकेनिकल तरीके से देख रहे।

पेरेंटस बच्चों को यह अहसास दिलाते हैं कि अच्छे मार्क्स आएंगे, स्पोर्ट्स में मेडल आएंगे तभी उसका महत्व है। पेरेंटस यह भूल जाते हैं कि किसी परीक्षा से बच्चे का मूल्यांकन नहीं होता, बल्कि पूछे गए प्रश्नों का मूल्यांकन होता है। स्कूल कॉलेज भी इसे समझ नहीं रहे। महज मार्क्स के आधार पर बच्चे का मूल्यांकन खतरनाक है। बहुत बच्चे लिखित परीक्षा में अच्छा कर लेते हैं लेकिन ऑब्जेक्टिव में नहीं। पेरेंटस इस बात को समझना नहीं चाहते। पेरेंटस को लगता है कि अभी मार्क्स कम आ रहे तो 10वीं में अच्छा परफॉर्म नहीं करेगा। 10वीं में मार्क्स अच्छे नहीं आए तो 12वीं में भी रिजल्ट खराब होगा। आगे करियर नहीं बन पाएगा। इस डर को वो बार-बार जताकर बच्चों को और कमजोर करते हैं।

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