मांझी की राह पर चलेंगे चंपाई सोरेन: नीतीश ने जीतनराम को CM पद से हटाया था, अलग पार्टी बनाकर BJP से गठबंधन किया – Patna News

झारखंड में एक-दो महीने में विधानसभा चुनाव का ऐलान हो सकता है। इसे लेकर राज्य का सियासी पारा अभी से चढ़ने लगा है। एक तरफ हेमंत सोरेन सत्ता बचाए रखने की जुगत में जुटे हैं। वहीं बीजेपी हर हाल में सत्ता वापसी की कोशिश में लग गई है। पिछले शुक्रवार से मंगलव

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चंपाई सोरेन ने पहले सरायकेला फिर कोलकाता और आखिर में दिल्ली में कई राउंड की मीटिंग की। वे रविवार को जिस रास्ते दिल्ली गए थे मंगलवार को उसी रास्ते सरायकेला लौट चुके हैं। लगभग 120 घंटे तक चले सियासी ड्रामे के बाद चंपाई सोरेन ने अब अपना पत्ता खोल दिया है।

सरायकेला लौटने के 12 घंटे बाद उन्होंने ऐलान कर दिया है कि वे अब अपना एक नया संगठन बनाएंगे। इसके साथ ही उन्होंने संकेत दिया है कि वे भाजपा के साथ गठबंधन भी कर सकते हैं।

अब ये तय हो गया है कि बिहार के जीतन राम मांझी की राह पर झारखंड में चंपाई सोरेन भी चल दिए हैं। आज से 9 साल पहले एकदम ठीक इसी तरह जीतन राम मांझी ने भी नीतीश कुमार से अलग होकर अपनी नई पार्टी बनाई थी। इसके बाद बीजेपी से गठबंधन कर लिया था।

बीजेपी में आने की जगह पार्टी क्यों, इसे समझिए

  • अगर चंपाई सोरेन बीजेपी में शामिल होते तो बीजेपी को इसका फायदा होने की बजाय नुकसान हो सकता था।
  • बीजेपी पर आदिवासी सरकार को अस्थिर करने का आरोप लगता।
  • ऐसे में अब जब चंपाई ने नई पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया तो बीजेपी पर ये आरोप नहीं लग सकता है।
  • चुनाव में चंपाई और बीजेपी दोनों इस मुद्दे को भुनाएंगे कि हेमंत सोरेन ने आदिवासी को आगे बढ़ाने की बजाय अपने परिवार को आगे बढ़ाना मुनासिब समझा।

882 वोट से जीतने वाले चंपाई बीजेपी के लिए जरूरी क्यों

कोल्हान की 5 सीटों पर वापसी की कोशिश
पिछले विधानसभा चुनाव में हेमंत सोरेन ने बीजेपी का कोल्हान से सफाया कर दिया था। यहां की आदिवासी के लिए आरक्षित और जनरल सभी 14 सीटों पर बीजेपी के कैंडिडेट को हार का मुंह देखना पड़ा था। जबकि पिछले 4 चुनाव से औसतन बीजेपी कोल्हान से तकरीबन 5-6 सीटें जीतते रहीं है। इनमें जमशेदपुर पूर्वी, जमशेदपुर पश्चिमी, खरसावां और पोटका विधानसभा एक तरह से भाजपा का गढ़ था। पिछले चुनाव में भाजपा को यहां से भी हार का मुंह देखना पड़ा था।

भाजपा के इलाके के सभी बड़े नेता सीन से गायब
बीजेपी के साथ समस्या ये है कि इस इलाके में बीजेपी के सभी बड़े नेता फिलहाल यहां की सियासत से गायब हैं। इलाके के सबसे बड़े नेता पूर्व सीएम रघुवर दास अब ओड़ीसा के राज्यपाल बना दिए गए हैं। सरयू राय बीजेपी से नाता तोड़ लिए हैं। लक्ष्ण गिलुआ का निधन हो गया है। पूर्व सीएम और केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा राज्य की सियासत में उतनी दिलचस्पी लेते हुए दिखाई नहीं दे रहे हैं। पूर्व सीएम मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा और कुणाल षाडंगी को पार्टी लाए जरूर लेकिन दोनों उतने कारगर दिख नहीं रहे हैं। षाडंगी भी पार्टी से इस्तीफा दे चुके हैं।

चंपाई के भरोसे कोल्हान में कमल खिलाने की कोशिश
चंपाई सोरेन की ताकत क्या है इस बात को बीजेपी भी अच्छे से जानती है। अगर हेमंत लहर के पिछला चुनाव को छोड़ दें तो किसी भी चुनाव में उनके जीत का अंतर 5 हजार को पार नहीं कर पाया है। 2005 का विधानसभा चुनाव तो वे मात्र 882 वोट से जीते थे।

लेकिन चंपाई सोरेन कभी कोल्हान नहीं छोड़े। वे कभी भी अखिल झारखंड स्तर के नेता बनना नहीं चाहे। यही कारण है शिबू सोरेन परिवार चुनाव के दौरान हर जगह कैंप करता था लेकिन कोल्हान की जिम्मेदारी चंपाई सोरेन के कंधे पर ही होती थी। ये खुद भले कम वोट से जीतते थे लेकिन पार्टी को यहां अच्छे नंबर से पास कराते थे। अब यही कारण है कि चंपाई के सहारे बीजेपी कोल्हान में कमल खिलाने की कोशिश में जुट गई है।

हेमंत सोरेन को घेरने के लिए आदिवासी का भावनात्मक मुद्दा
हेमंत सोरेन अपनी योजनाओं और नीतियों के बूते आज झारखंड में सर्वस्वीकार्य सबसे बड़े आदिवासी नेता हैं। हालियों दो चुनाव के आंकड़े भी इसकी गवाही देता है। झारखंड में आदिवासी के लिए आरक्षित 28 विधानसभा सीटों में 22 पर महागठबंधन का कब्जा। इनमें 17 अकेले जेएमएम के विधायक हैं। इसी तरह लोकसभा की 5 सीटें आदिवासी के लिए आरक्षित हैं। 2 महीने पहले हुए चुनाव में इन सभी सीटों पर इंडिया ने कब्जा जमाया है। इनमें 2 सीटें पहले भाजपा के पास थीं।

ऐसे में चंपाई सोरेन के बहाने बीजेपी को हेमंत सोरेन को घेरने का मौका मिल जाएगा। भाजपा के नेता अभी से ये राग दोहराने लगे हैं कि सोरेन परिवार आदिवासियों की इज्जत नहीं करता है, वहां केवल परिवार को बढ़ाया जाता है। चंपाई भी अब हेमंत सोरेन के खिलाफ बागी तेवर दिखा चुके हैं।

इन दिग्गजों ने पार्टी से अलग अपना मोर्चा बनाया

बाबूलाल मरांडी- झाविमो
झारखंड की सियासत में पहले भी पार्टी के दिग्गज पार्टी की नीतियों से नाराज होकर पार्टी का साथ छोड़ चुके हैं। इसमें सबसे सफल नाम है झारखंड के पहले सीएम और बीजेपी के सीनियर लीडर बाबूलाल मरांडी का। 2006 में इन्होंने बीजेपी से नाराज होकर झारखंड विकास मोर्चा के नाम से अपनी लग पार्टी बना ली। लगभग 18 साल तक ये बीजेपी से अलग रहे और तीन विधानसभा का चुनाव लड़ा।

2009 के चुनाव में झाविमो 11 सीट जीतने में सफल रही थी। तब पार्टी को 9.1 फीसदी वोट मिले थे। वहीं 2014 में पार्टी 8 सीट जीतने में सफल रही थी। तब पार्टी का वोट पर्सेटेंज बढ़कर 10.2 फीसदी हो गया था। जबकि 2019 के विधानसभा चुनाव में पार्टी 3 सीटं पर सिमट गई। पार्टी का वोट पर्सेंटेज भी घटकर 5.5 फीसदी आ गया था। इसके बाद पार्टी में टूट हुई। बाबू लाल बीजेपी में घर वापसी किए जबकि प्रदीप यादव और बंधु तिर्की ने कांग्रेस की राह चुनी ।

इंदर सिंह नामधारी- संपूर्ण क्रांति दल
संयुक्त बिहार में भाजपा के कद्दावर नेता रहे इंदर सिंह नामधारी और समरेश सिंह जैसे दिग्गज नेता ने भी अपनी अलग पार्टी बनाई थी। बात 1995-96 की है। इन्होंने अपनी पार्टी का नाम संपूर्ण क्रांति दल रखा था। हालांकि वे इसमें सफल नहीं हो सके और पहले ही चुनाव में मुंह की खाने के बादनामधारी सिंह राजद फिर जदयू में शामिल हो गए। जबकि समरेश सिंह निर्दलीय और फिर झाविमो में चले गए।

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