कोटा और कोचिंग: नंबरों की दौड़ में फंसा जीवन, बच्चों की भावना समझने को कोई तैयार नहीं

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17 मिनट पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर

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कोटा में रविवार को फिर दो छात्रों ने आत्महत्या कर ली। इसलिए, कि कोचिंग इंस्टीट्यूट द्वारा लिए जा रहे टेस्ट में लगातार उनके नंबर कम आ रहे थे। दरअसल, ये नंबर्स जो हैं, वो एक तरह की ज़हरीली छुरी है। कई लोगों को दिन में पाँच-छह बार मारती है। कई को जीवनभर मारती है और कई लोग इसके ख़ौफ़ से जीवन ही समाप्त करने पर विवश हो जाते हैं।

हमारे यहाँ यानी भारत में, माता- पिता उम्रभर पैसा इकट्ठा करने के फेर में अपना जीवन खपा देते हैं। सोचते हैं, हमें जो सुविधाएँ नहीं मिल पाईं थी वो सब बच्चों को ज़रूर देंगे। यह सब सोचते- सोचते, करते- करते जब पिता को शुगर और माँ को ऑर्थराइटिस हो जाता है तब वो अपने बच्चे में वो देखते हैं जो खुद अपने जीवन में नहीं कर पाए या करने में विफल रहे।

इसके पहले बच्चे को दसियों बार ये कहानी अलग-अलग तरीक़े से बताई-समझाई जाती है कि हमारे पास कोई सुविधा नहीं थी। हमारे माता- पिता को तो ये भी नहीं पता था कि आईआईटी क्या है और मेडिकल एग्ज़ाम क्या होता है। आपको तो सब कुछ पता है। तो करो। जो हम नहीं कर पाए, तुम करो। कम से कम हमारा सपना पूरा करो। तुम सफल हो जाओगे तो हम समझेंगे हमने स्वर्ग पा लिया। अलग-अलग उदाहरणों के साथ बच्चों को ये कहानी इतनी बार सुनाई जाती है कि उन्हें ये कहानी भी एक तरह से नंबर गेम लगने लगती है। मानसिक दबाव बच्चों पर तारी हो जाता है।

माता-पिता बच्चों को कहानियां सुनाते हैं कि हमारे पास सुविधाएं नहीं थीं, तुम्हारे पास हैं। तो वो करो, जो हम नहीं कर पाए।

माता-पिता बच्चों को कहानियां सुनाते हैं कि हमारे पास सुविधाएं नहीं थीं, तुम्हारे पास हैं। तो वो करो, जो हम नहीं कर पाए।

पेरेंट्स के दबाव में फिर बच्चा अपनी भावना, ऊर्जा, यहाँ तक कि रुचि को भी दबाते हुए माँ-बाबा के सपने पूरे करने में लग जाता है या इस दिशा में सोचने लगता है। माता पिता अपने अधूरे सपनों को पूरा करने के प्रति इतने व्याकुल रहते हैं कि इस व्याकुलता में वे बच्चों से यह पूछना भूल ही जाते हैं कि बेटा, या बेटी, तुम आख़िर क्या करना चाहते हो या चाहती हो? कोई नहीं पूछता।

बार- बार कहानियाँ सुन-सुनकर बच्चों को भी लगने लगता है कि माँ-बाबा के सपने पूरे करने का नाम ही ज़िंदगी है। उनकी अपनी सोच, सपने, रुचि और शक्ति तो उस मध्यम परिवार के पिंजरे में क़ैद है जिसका नाम भावनात्मक ब्लैकमेल होता है। कहने में बुरा लग सकता है। लेकिन सचाई यही है। पढ़ाई के वक्त जो बच्चा नंबरों की दौड़ में फँसा रहता है, वही ऊँची नौकरी पाने के बाद दूसरे नंबर गेम में उलझ जाता है। फिर उसे जीवन में कभी छुट्टी नहीं मिलती। मिलती ही नहीं। ऐसे में माँ- बाबा का वो सपना फिर कहाँ गया?

माता पिता अपने अधूरे सपनों को पूरा करने के प्रति इतने व्याकुल रहते हैं कि बच्चों से पूछना भूल जाते हैं कि तुम आख़िर क्या करना चाहते हो?

माता पिता अपने अधूरे सपनों को पूरा करने के प्रति इतने व्याकुल रहते हैं कि बच्चों से पूछना भूल जाते हैं कि तुम आख़िर क्या करना चाहते हो?

आख़िर कोई तो समझे कि बच्चा इस नंबर गेम में फँसकर बूढ़े माँ-बाबा की लाठी नहीं बन सकता। होली-दिवाली भी उसे छुट्टी नहीं मिल सकती। यहाँ तक कि माँ या पिता, जो भी पहले मरे, उसकी अंत्येष्टि पर भी वो नहीं आ सके और पड़ोसी काका से कहे कि आप ये सब करवा दो, तो काहे के सपने? कैसा जीवन? और ये जो नंबर गेम भी पीढ़ियों से चला आ रहा है, इसका भी आख़िर मतलब क्या है?

कुल मिलाकर, गलती आत्महत्या पर विवश हो रहे बच्चों की नहीं, उनके माँ-बाबा की है जो अपने अधूरे सपनों का बोझ बच्चों पर डाले जा रहे हैं। इस परम्परा, इस सोच पर जब तक विराम नहीं लगेगा, कोटा में चौथी- छठी मंज़िल से बच्चे कूदते रहेंगे। जहां तक कोचिंग इंस्टीट्यूट का सवाल है, वे तो पैसे कमाने की मशीन हैं। मशीनों को किसी के मरने-बिछड़ने का दुख कहाँ होता है!

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