किसान फिर आंदोलन की राह पर: एमएसपी का सवाल फिर आड़े आया, इसलिए संकट दोबारा दिल्ली पहुंचने वाला है

2 घंटे पहले

  • कॉपी लिंक

किसान फिर आंदोलन की राह पर हैं। लगभग आठ महीने हो गए, सरकार ने विवादित विधेयक वापस लेते हुए किसानों की मांगों पर विचार कर जल्द से जल्द हल निकालने का वादा किया था। लेकिन कुछ नहीं हुआ। किसानों पर हुए मुकदमे वापस लेने आदि की मांगें जरूर हैं लेकिन सबसे बड़ा मामला है एमएसपी का।

एमएसपी यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइस। यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य। किसान चाहते हैं कि उनकी फसल एमएसपी से कम पर कहीं भी नहीं खरीदी जाए। दरअसल, होता यह है कि सरकारी खरीद का कोटा पूरा होते ही मंडी और मंडी समितियां फसल खरीदना बंद कर देती हैं।

बची हुई फसल को किसान मजबूरी में व्यापारी को बेचता है। व्यापारी एमएसपी जैसी किसी चीज को मानता ही नहीं। वह तो समय के हिसाब से अपना भाव तय रखता है। बेचना हो तो बेचो वर्ना घर जाओ। बेचारा किसान करे तो क्या करे?

सरकारी कोटा पूरा होने के बाद मंडी और मंडी समितियां फसल खरीदना बंद कर देती हैं। इसके बाद किसानों को मजबूरन अपनी फसल औने-पौने दाम में व्यापारियों को बेचनी पड़ती है। किसानों का कहना है कि हमसे पूरी फसल खरीदने में समितियों को क्या हर्ज है?

सरकारी कोटा पूरा होने के बाद मंडी और मंडी समितियां फसल खरीदना बंद कर देती हैं। इसके बाद किसानों को मजबूरन अपनी फसल औने-पौने दाम में व्यापारियों को बेचनी पड़ती है। किसानों का कहना है कि हमसे पूरी फसल खरीदने में समितियों को क्या हर्ज है?

सरकार की अपनी मजबूरियां हैं। आखिर खरीदी का कोटा पूरा होने के बाद सरकार का किसी पर कोई नियंत्रण रहता नहीं। व्यापारियों को कई बार किसान ही एमएसपी से कम कीमत पर फसल बेचने को तैयार हो जाता है क्योंकि व्यापारी नकद पैसा देता है और किसान के काम सामने खड़े रहते हैं।

शादी, मामेरा, अगली फसल की बीज खरीदी, खाद और दवा आदि। पेंच यहां है कि कई जगह व्यापारी किसान की फसल कम कीमत पर खरीद कर ऊंचे दाम पर बेच देता है। कभी दूसरे शहर के बड़े व्यापारी को। कभी मंडी समितियों के अफसरों से सांठगांठ करके समितियों को। किसानों का कहना है कि हमसे पूरी फसल खरीदने में समितियों को क्या हर्ज है?

सबसे बड़ी बात यह है कि समस्या है तो हल भी जरूर निकलना चाहिए। जब सरकार ने वादा किया था कि जल्द हल निकाल लिया जाएगा तो यह संभव क्यों नहीं हुआ? सच यह है कि सरकारें हर समस्या या संकट को फौरी तौर पर लेती हैं। तात्कालिक हल पर उनका जोर ज्यादा रहता है।

सरकार ने किसानों की मांग को देखते हुए एमएसपी समिति बना दी थी। इस समिति में वे ही सरकारी प्रतिनिधि थे जो विवादित विधेयकों का समर्थन कर रहे थे। इसलिए किसानों ने सरकार की समिति से बातचीत के लिए अपने प्रतिनिधि ही नहीं भेजे। मामला जस का तस है।

सरकार ने किसानों की मांग को देखते हुए एमएसपी समिति बना दी थी। इस समिति में वे ही सरकारी प्रतिनिधि थे जो विवादित विधेयकों का समर्थन कर रहे थे। इसलिए किसानों ने सरकार की समिति से बातचीत के लिए अपने प्रतिनिधि ही नहीं भेजे। मामला जस का तस है।

अभी संकट टल गया, भर पाए। बाद की बाद में देखी जाएगी। यही रवैया सबसे ज्यादा दुखदायी है। अगर वादा समय पर पूरा कर दिया जाए तो कोई किसान दोबारा पटरी पर क्यों जाए? फिर से किसान को जंतर-मंतर पर धरना देने की जरूरत ही क्यों पड़े?

अब सरकार कह सकती है कि हमने तो एमएसपी समिति बना दी थी। किसानों ने अपने प्रतिनिधि ही नहीं भेजे तो हम क्या करें? लेकिन सरकार ने समिति कब बनाई? पिछली जुलाई में। यानी साढ़े सात महीने बाद।

चूंकि इस समिति में वे ही सरकारी प्रतिनिधि थे जो विवादित विधेयकों का समर्थन कर रहे थे इसलिए किसानों ने अपने प्रतिनिधि भेजने से इनकार कर दिया था। सरकार को इस मुद्दे पर आगे बढ़ना था लेकिन उसने तो न झुकने की कसम खा रखी है। इसलिए संकट दोबारा दिल्ली तक पहुंचने वाला है।

खबरें और भी हैं…