कारगिल शहीद कमलेश सिंह की शौर्यगाथा: 1965 में जिस जगह पिता पाकिस्तान से लड़े, उसी वॉर जोन में पाई शहादत; मां भगवान जैसा पूजती हैं

3 घंटे पहले

7 जून 1999, सुबह 5 बजे। 33 साल के कमलेश भटिंडा के आर्मी कैंप से अपने घर गाजीपुर फोन करते हैं। टेलीफोन की घंटी बजते ही पिता फोन उठाते हैं। कमलेश कहते हैं, “पापा, छुट्टी मिल गयी है 15 जुलाई को घर आऊंगा।” पिता ने ये बात मां को बताई, दोनों खुश हो गए और बेटे के आने की राह देखने लगे।

ठीक 7 दिन बाद यानी 15 जून को पिता के पास दोबारा फोन आता है। इस बार फोन कारगिल से आया था। लेकिन ये फोन बेटे का नहीं यूनिट के कमांडिंग ऑफिसर का था। ऑफिसर ने पिता से कहा, “आपका बेटा दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद हो गया।”

कारगिल युद्ध 26 जुलाई 1999 को खत्म हुआ था। 3 महीने तक चले इस युद्ध में 527 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे। कारगिल वॉर हीरोज की कहानी के दूसरे पार्ट में गाजीपुर के जांबाज फौजी कमलेश सिंह की बात करेंगे।

कमलेश के पिता अजनाथ सिंह सेना में कैप्टन थे। बताते हैं, “बेटा 19 साल की उम्र यानी 31 जुलाई 1985 को भारतीय सेना के कोर ऑफ इलेक्ट्रॉनिक्स एंड मैकेनिकल इंजीनियर्स EME में भर्ती हुआ था। उसकी तैनाती 457 FRIP भटिंडा में हुई थी। ट्रेनिंग के बाद ज्यादातर ड्यूटी VIP लोगों के साथ ही लगती थी।

7 जून 1999 की शाम को उनके यूनिट को कारगिल जाने को कहा गया। वहां उनको राजपुताना राइफल्स के साथ अटैच कर दिया गया। उनकी पोस्टिंग कारगिल युद्ध में रणनीतिक रूप से अहम टाइगर हिल की चोटी पर हुई थी।

टाइगर हिल की यही वो चोटी है जहां कारगिल युद्ध की निर्णायक लड़ाई लड़ी गयी थी।

टाइगर हिल की यही वो चोटी है जहां कारगिल युद्ध की निर्णायक लड़ाई लड़ी गयी थी।

आगे बढ़ने से पहले टाइगर हिल के बारे में जानते हैं…
टाइगर हिल, द्रास सेक्‍टर में है और कारगिल की जंग से पहले भारतीय फौज हर रोज वहां पेट्रोलिंग के लिए नहीं जाती थी। टाइगर हिल 5,307 मीटर यानी 17,410 फीट की ऊंचाई पर है। टाइगर हिल नेशनल हाईवे 1D के बिल्कुल करीब है। यह रास्‍ता लद्दाख के कारगिल को श्रीनगर और देश के बाकी हिस्‍सों से जोड़ता है।

टाइगर हिल पर कब्जे का मतलब पूरा हाईवे आपके नजर में है। दुश्मन हाईवे पर कब्जा करके लेह को बाकि हिस्से से अलग कर देना चाहता था। अप्रैल 1999 के अंतिम सप्ताह में पाकिस्तान ने टाइगर हिल पर कब्जा कर लिया।

15 जून 1999 को राजपुताना राइफल्स ने इस चोटी को कब्जाने के लिए आक्रामक तरीके से अटैक किया। चारों तरफ से तोप गरज रहे थे। भारतीय फौज के जवान टारगेट पर लगातार आगे बढ़ते जा रहे थे।

अब फिर बात करते हैं कमलेश की बहादुरी की…

पिता के साथ जामनगर में रहे, लेकिन मरते दम तक गांव से रिश्ता जोड़े रखा
पिता अजनाथ सिंह ने बताया, “उनकी पोस्टिंग गुजरात के जामनगर में थी। परिवार को गांव से साथ ले गए। वहीं कमलेश की शुरुआती पढ़ाई हुई। रिटायर होने के बाद गांव चले आए। इसलिए इंटरमीडिएट की पढ़ाई गाजीपुर से की। शहर में रहते हुए भी उनका जुड़ाव हमेशा अपने गांव से ही था।

शहादत के बाद 16 जुलाई 1999 को कमलेश के पार्थिव शरीर को उनके गांव लाया गया। हजारों की भीड़ अपने बेटे को आखिरी विदाई देने के लिए उमड़ी थी।

शहादत के बाद 16 जुलाई 1999 को कमलेश के पार्थिव शरीर को उनके गांव लाया गया। हजारों की भीड़ अपने बेटे को आखिरी विदाई देने के लिए उमड़ी थी।

पिता ने जहां 1965 की लड़ाई लड़ी, वहीं शहीद हुआ बेटा
83 साल के पिता अजनाथ सिंह ने 1965 की एक घटना को याद करते हुए बताया, “जिस जगह पर मैंने पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई लड़ी, उसी जगह टाइगर हिल पर बेटे ने 15 जून 1999 को शहादत देकर जिले का नाम रोशन कर दिया। पिता होने के नाते दुःख तो होता ही है। लेकिन एक फौजी होने के नाते गर्व भी है कि मेरा बेटा देश की सेवा करते हुए शहीद हो गया और सदा के लिए अमर हो गया।

हर पल उसकी याद सताती है, लेकिन लोग गर्व से बेटे की शहादत को सलाम करते हैं। देश के नाम एक बेटा क्या सैकड़ों बेटे कुर्बान हैं। उनकी वीरता, बहादुरी और अदम्य साहस के लिए भारत के तत्कलीन राष्ट्रपति के.आर.नारायणन ने बेटे को मरणोपरांत सेना मेडल से नवाजा था।

पिता ने बताया, “कमलेश ने बम का टुकड़ा लगने के बावजूद दुश्मनों से डटकर मुकाबला किया था। गांव के लोग बेटे को टाइगर कहते थे। वह वाकई में टाइगर था।” उन्होंने बताया, “बेटे ने बम का टुकड़ा लगने के बावजूद दुश्मनों से डटकर मुकाबला किया और अदम्य साहस का परिचय दिया।”

मां नहीं चाहती थीं बेटा सेना में भर्ती हो
केशरी देवी कमलेश सिंह की मां हैं। उम्र 80 साल पार कर गयी हैं। चेहरे पर अब झुर्रियां पड़ गई हैं। बिना चश्मा लगाए अब देखने में भी दिक्कत होती है। कमलेश का नाम लेते ही चश्में के नीचे से आंसुओं की धार बहने लगी। शहीद बेटे के बारे में बात करते हुए उनका गला भर आया।

उनकी बातों को सुन कर ऐसा लगा मानो बेटे की सभी हरकतें, उनके सामने किसी फिल्म की तरह चल रही हों। मां ने कहा कि शहादत को 23 साल हो गए हैं। ऐसा कोई दिन नहीं है जब बेटे की याद न आती हो। एक-एक दिन काटना मुश्किल होता है, लेकिन क्या करें जीवन और मृत्यु तो अपने हाथ में नहीं है।

मां हर रोज बेटे को भगवान की तरह पूजती हैं। 23 साल में ऐसा कोई दिन नहीं बीता जब उनकी याद ना आती हो।

मां हर रोज बेटे को भगवान की तरह पूजती हैं। 23 साल में ऐसा कोई दिन नहीं बीता जब उनकी याद ना आती हो।

उन्होंने बताया, “पति सेना में थे। लेकिन बेटे को आर्मी में नहीं जाने देना चाहती थी। बेटा आर्मी में भर्ती की तैयारी कर रहा था। मना किया तो पैर पकड़ लिया। कई दिनों तक मुझे मनाया। बेटे ने कहा- सेना की वर्दी पहनना सपना है। मातृभूमि की सेवा करने का आशीर्वाद दीजिए। भरभराई आंखों से कहा- फिर बेटे को मना नहीं कर पाई।

केशरी देवी ने कहा, “कमलेश चार भाइयों में दूसरे नंबर के थे। उनकी शादी 13 मई 1989 को हुई थी। लेकिन कोई बच्चा नहीं था। बेटे के शहीद होने के बाद बहू मायके चली गई। 22 साल से मुलाकात नहीं हुई। जीवन के आखिरी पड़ाव पर हूं। अंतिम बार मिलना चाहती हूं।”

शहीद कमलेश सिंह को मरणोपरांत सेना मेडल से नवाजा गया था। सेना मेडल को ग्रहण करतीं उनकी पत्नी रंजना देवी।

शहीद कमलेश सिंह को मरणोपरांत सेना मेडल से नवाजा गया था। सेना मेडल को ग्रहण करतीं उनकी पत्नी रंजना देवी।

(यह स्टोरी विकास सिंह ने की है। विकास दैनिक भास्कर के साथ इंटर्नशिप कर रहे हैं।​​​​​​)

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