भास्कर ओपिनियन: तापमान बढ़ रहा है, मौसमी तौर पर भी और राजनीतिक रूप से भी

14 मिनट पहले

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मौसम बदल रहा है। राजनीतिक रूप से भी। मौसमी तरीक़े से भी। दिल्ली के कुछ इलाक़ों में बुधवार को तापमान 52 डिग्री से ऊपर चला गया। जैसा कि होता है, तापमान हद से ज़्यादा हो जाए तो बादल मेहरबान होने लगते हैं, वैसा ही दिल्ली में भी हुआ। शाम को तेज आंधी के साथ बारिश हो गई।

हालाँकि दिल्ली की गर्मी में बारिश के बावजूद कमी नहीं आती। चिपचिपी हो जाती है। राजनीति में भी आजकल यही सब हो रहा है। लोकसभा चुनाव का आख़िरी दौर एक जून को है। इसके पहले बयानों का तापमान आसमान पर पहुँच चुका है। लगता है यह तापमान प्रचार थमने के दिन यानी तीस जून की शाम को कम हो जाएगा। लेकिन लगता है गर्मी कम नहीं होने वाली। चिपचिपी हो जाएगी।

चार जून को जब चुनाव परिणाम की भारी बारिश होगी, तभी ठंडक पड़ेगी। राजनीतिक दलों के कलेजे में भी और आम जनता के क़यासों पर भी।

मौसम की बात करें तो अब तक यही देखा गया कि यदा कदा राजस्थान के जैसलमेर और बाड़मेर के पास पाकिस्तान सीमा से सटे इलाक़ों में ही तापमान पचास डिग्री से ऊपर जाता था लेकिन अब तो दिल्ली तक पीछे नहीं रही। उसके कुछ इलाक़े भी पचास से ज़्यादा डिग्री पर तप रहे हैं। निश्चित तौर पर पेड़ों को काटकर कंक्रीट के जंगल बिछाने का ही यह परिणाम है।

गर्मी के मौसम में तापमान बहुत ज़्यादा हो जाता है। पावस के दिनों में बारिश या तो बहुत दिनों तक होती नहीं या इतनी ज्यादा हो जाती है कि बाढ़ आ जाती है। समुद्री तूफ़ानों ने भी अपनी रफ़्तार बढ़ा दी है। पर्यावरणीय नैतिकता के क्षरण के कारण यह सब हमें भुगतना पड़ रहा है।

नैतिकता की कमी जिस भी क्षेत्र में आती है, इसी तरह की असमानता का सामना करना पड़ता है। आजकल की राजनीति को तो पता ही नहीं है कि नैतिकता आख़िर किस चिड़िया का नाम है। जाने कब यह चिड़िया राजनीति के बियाबान से पंख फैलाए उड़ चुकी।

चुनाव आते ही नेताओं की नीतियाँ, सिद्धांत और आस्था कपड़ों की तरह बदलने लगती है। इस दल से उसमें, उस दल से इसमें, आते-जाते रहते हैं। …और हम जाने कब से इन दल बदलुओं को ही चुनाव जिताने में लगे हुए हैं। समझ में नहीं आता कि इन नेताओं के दल बदलने में आख़िर जनता का क्या फ़ायदा है? सोच कर देखें तो दल बदलने में, सिवाय निजी स्वार्थ के और कुछ नज़र नहीं आता। फिर भी ये बार-बार दल बदलते फिरते हैं और बार-बार जीतते भी रहते हैं। जाने क्यों? आख़िर हम ऐसे नेताओं को वोट देते ही क्यों हैं?